Table of Contents चलो एक दिन के लिए मुसलमान बन जाता हूं कविता |
चलो एक दिन के लिए हम तुम हिन्दू बन जाओ
और मैं मुसलमान बन जाता हूं
आज में अल्पसंख्यक बन कर देखता हूं
और बहुसंख्यक की नींद तुम्हे सौंपता हूं
कानो में रोज़ की तरह अज़ान तो पड़े
पर आज एक सुकून सा लगे
और गणपति के ढोल पर
तुम्हारा भी कुछ हुजूम सा लगे
समझ में आ जाएगा बात बड़ी नहीं छोटी ही थी
बुर्खा फटे ता घूंघट, अंदर तो बेटी ही थी
मेरे दोस्त अमीर से कहना अपना नाम अविनाश रख ले
रूह तो मेरी यहीं रहेंगी, पड़ोसी के कहना लाश रख ले
मैं आज दफन हो जाता हूं , तुम्हे कल जला दिया जाएगा
अगले जनम भी हमें ऊपर तक बाहर कर धीरे से हिला दिया जाएगा
क्यूंकि कुर्ता और पठानी जब मिलेंगे देखने वाले तो फर्क ही करेंगे
खरीदने वाले मोल लगाएंगे और बेचने वाले बेचते जाएंगे
लेकिन को बिक रहा है उसे पता तक नहीं हो पिट रहा है उसकी खाता तक नहीं
अरे मारना है तो सैतान को मारो क्यूंकि इंसान तो कोई बचा ही नहीं
कल जब वापस मैं हिन्दू और आप मुसलमान बनेंगे
शायद कुछ बेहतर इंसान बनेंगे
तब घर आना बिरयानी खिलाऊंगा और माइनॉरिटी नहीं सीधा हिन्दुस्तानी बुलाऊंगा